जानिए कौन था भारत का सबसे छोटा स्वतंत्रता सेनानी, मात्र 12 साल की उम्र में हुआ शहीद!


ओडिशा के इतिहास में कभी भी न भूलने वाली तारीख 11 अक्टूबर है। आज से करीब 79 वर्ष पहले 11 अक्टूबर 1938 को फिरंगी सैनिकों ने ढेंकानाल जिले में कहर बरपाया था, जिसमें नीलकंठपुर गांव के 12 साल के एक किशोर बाजी राउत पर गोली मारकर हत्या कर दी थी। आजादी की लड़ाई के इतिहास में बाजी राउत को देश का सबसे कम उम्र का शहीद बताया गया है। देश को हिला देने वाली इस घटना ने स्वतंत्रता आंदोलन की चिंगारी को ज्वाला में तब्दील कर दिया था।
10 अक्टूबर 1938 को ब्रिटिश पुलिस कुछ लोगों को गिरफ्तार कर भुवनेश्वर थाना ले आई थी। इनकी रिहाई की मांग जोर पकडऩे लगी। पुलिस ने प्रदर्शन कर रहे लोगों पर गोलियां चलाईं, जिसमें दो लोगों की मौत हो गई। लोगों के बढ़ते आक्रोश को देख पुलिस ने ब्राह्मणी नदी के नीलकंठ घाट होते हुए ढेंकानाल की ओर भागने की कोशिश की। ये लोग 11 अक्टूबर को बारिश में भीगते हुए नदी किनारे पहुंचे। बाजी राउत नदी तट पर नाव के साथ थे। उन्हें पार कराने का हुक्म दिया गया। बाजी ने सेना के जुल्मों की कहानी सुन रखी थी। 
उन्होंने सेना को पार उतारने से साफ इंकार कर दिया। सैनिकों ने उन्हें मारने की धमकी दी। हुक्म न मानने पर एक सैनिक ने बंदूक की बट से उनके सिर पर प्रहार किया, वह लहूलुहान होकर गिर पड़े और फिर उठ खड़े हुए और अंग्रेजों को पार उतारने से मना कर दिया।12 साल का बाजी न तो उनसे डरा और न ही भागा, बल्कि दृढ़ता से उनका मुकाबला किया। अंग्रेज सिपाही उसकी वीरता और देशभक्ति का आकलन नहीं कर पा रहे थे। बाजी के मन में देशभक्ति की भावना कूटकर भरी थी जिसका परिणाम यह निकला उसने बलिदान देना स्वीकार किया पर अंग्रेजों के आगे झुकना स्वीकार नहीं किया। गुस्साए ब्रिटिश सैनिकों ने बाजी राउत को गोलियों से छलनी कर दिया। इस दौरान बाजी के साथ गांव के लक्ष्मण मलिक, फागू साहू, हर्षी प्रधान और नाता मलिक भी मारे गए। इन बच्चों के बलिदान की चर्चा पूरे देश में फैल गई।
आंदोलनकारी आक्रोशित हो उठे। यहीं से स्वतंत्रता आंदोलन की क्रांतिकारी इबारत शुरू हो गई।कटक के खाननगर के श्मशान में इस वीर बालक को मुखानि दी गई. तब ढेंकानाल, कटक जिले में आता था।
एक कवि ने इस भावपूर्ण घटना पर लिखा—
बंधु यह चिता नहीं है,
यह देश का अंधेरा मिटाने की मुक्ति की मशाल है।''
'वहीं कवि कालिंदी चरण पाणिग्रही ने लिखा-
''आओ लक्षन, आओ नट, रघु, हुरुसी प्रधान, बजाओ तुरी, बजाओ बिगुल, मरा नहीं है, मरा नहीं है, बारह साल का बाजिया मरा नहीं...।''
आज भी नीलकंठपुर के लोग 11 अक्टूबर को बाजी की याद में एक सभा करके उसके बलिदान को याद करते हैं। आज भी यह गांव विकास की आस में है। स्वतंत्रता के इतने दिन बाद भी यहां न पीने का पानी है और न ही यहां अस्पताल। पढ़ने के लिए स्कूल भी नहीं है।
बाजी के भाई नट राउत के चार बेटे हैं। नट और उनकी पत्नी का स्वर्गवास हो चुका है। बाजी के परिवार के लोग मजदूरी कर अपने परिवार का पालन-पोषण करते हैं। यहां विकास के नाम पर अभी भी अंधियारा है।

बहरहाल वीर बालक बाजी राउत के परिवार के लोग आज भी कठिन परिस्थितियों में गुजर-बसर करने पर मजबूर हंै। उनका परिवार मूलभूत सुविधाओं से ही वंचित है। आजादी के इतने वर्ष हो चुके हैं फिर भी इस गांव के लोग विकास से अछूते हैं। इनकी आस कब पूरी होगी, सरकार कब जागेगी, बाजी राउत जैसे वीर सेनानियों को कब याद करेगी, अभी यह प्रश्न भविष्य के गर्त में है।

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