घमंड करूँ भी तो कैसे करूँ, यहाँ क्या मेरा अपना है:डॉ सुलक्षणा

कब्रिस्तान की मिट्टी देखी, मैंने देखी श्मशान घाट की राख,
ढूंढ़े से भी नहीं मिला वो अहंकार जिसमें दुनिया हुई खाक।

घमंड करूँ भी तो कैसे करूँ, यहाँ क्या मेरा अपना है,
मैं अकड़ूँ भी तो कैसे अकड़ूँ, जिंदगी भी एक सपना है।

जन्म दिया माँ बाप ने और गुरुदेव ने की शिक्षा प्रदान,
किस्मत लिखी उस ईश्वर ने, करते सभी उसी का ध्यान।

बनी जो मेरी अर्धांगिनी, वो भी मुझे सौंपी किसी और ने,
वंशबेल भी मेरी चलाई, सात फेरे लेकर आई चितचोर ने।

यह रुपया, पैसा, धन, दौलत, रूप, यौवन भी स्थायी नहीं,
ऐसा कौन जग में जो आया और जिसकी हुई विदाई नहीं।

अब तुम ही कहो "सुलक्षणा" किस बात का घमंड करूँ,
इस झूठे घमंड के कारण क्यों अपनों से दूर होकर मरूँ।

डॉ सुलक्षणा

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