समय की दृष्टि से भगवान् के पांच प्रकार के अवतार होते हैं
१. परार्द्धावतार ,
२. कल्पावतार ,
३. मन्वन्तरावतार ,
४. युगावतार ,
५. अष्टाविंशति युगावतार ।
१. परार्द्धावतार -ब्रह्मा जी के वर्षमान से उनकी १०० वर्ष या १०८ वर्ष की आयु होती है ।
वर्तमान ब्रह्मा का नाम विरंचि है , इस समय यह ५० वर्ष के हो चुके हैं । इनकी आधी आयु को परार्द्ध कहते हैं ।
"तत्पराख़्यंतदर्द्धपरार्द्धमभिधीयते" और पूरी आयु को पराख्य कहते हैं ।
इन दोनों परार्द्धों में भगवान् वाराह के दो अवतार हुए ।
प्रथम परार्द्ध के आदि में ब्रह्मा की उत्पत्ति के अनन्तर नीलवाराह कल्प में ब्रह्मा की नासिका के छिद्र से नीलवाराह का अवतार हुआ , और उनके देखते-ही-देखते पर्वताकार हो गया और हिरण्याक्ष को मारकर पृथ्वी को जल पर स्थापित किया ।
इन्हीं की ऋषियों ने यज्ञवाराह के रूप में स्तुति की , यह ग्राम शूकर नहीं थे , किन्तु जंगली शूकर थे ।
यहां कुछ लोग प्रश्न करते हैं कि विष्णु भगवान् ने सर्वशक्तिमान् होकर भी ऐसी योनियों में जन्म क्यों लिया ?
तो इसका समाधान है --- ईश्वर सत्यसंकल्प हैं , अपनी शक्ति से जैसा चाहें वैसा रूप बना सकते हैं अथवा ज्ञानशक्त्यावतार भगवान् वेदव्यास जी ने मन्द बुद्धि वाले द्विजातियों , स्त्री तथा शूद्रों का कल्याण करने के लिए वेद के गूढ़ रहस्यों का रोचक वर्णन कथाओं के माध्यम से किया है ।
वेदों के अध्यात्म , अधिदैव तथा अधिभूत -- तीन प्रकार के अर्थ हैं ।
वेदों में वाराह नाम की एक वायु कही है , योगियों ने समाधि में उसका आकार शूकर के समान प्रत्यक्ष किया ; वह पृथ्वी के दसों दिशाओं में स्थित होकर पृथ्वी की रक्षा करती है । इस वायु के द्वारा सृष्टि के आरम्भ से अंत तक इसकी रक्षा होती है । वायु के न रहने से पृथ्वी मुठ्ठी भर मिट्टी के समान जल में घुल जायेगी , क्योंकि पृथ्वी की अपेक्षा जल दश गुणा है और इस प्रकार वाराह वायु भूमण्डल को धारण किये हैं ।
अथवा आजकल के वैज्ञानिक पृथ्वी को आग का गोला कहते हैं , इसका भीतरी भाग आज भी गरम है , जो लावा के रूप में निकल कर ज्वालामुखी के रूप में देखे जाते हैं । ऐसे में पृथ्वी जल जानी चाहिए , किन्तु वाराह वायु जलने से पृथ्वी की रक्षा करती है ।
हमारे पुराण आदि शास्त्रों की तीन प्रकार की भाषा है --- समाधि भाषा , आध्यात्मिक भाषा और लौकिक भाषा ।
भगवान् का सर्वप्रथम अवतार नीलवाराह के रूप में होने के कारण प्रथम कल्प भी नीलवाराह कहा गया है ।
जब ब्रह्मा जी ५० वर्ष के हो चुके , ५१वां वर्ष आरंम्भ हुआ , तब उनकी प्रार्थना से भगवान् ने श्वेत वाराह के रूप में अवतार धारण किया । अतः यह कल्प श्वेतवाराह कल्प के नाम से प्रसिद्ध हुआ ।
ब्रह्मा जी के एक दिन का नाम कल्प है , इसमें १४ मनु , १४ इन्द्र और १४ सप्तर्षि बीत जाते हैं , इस समय सातवें वैवस्वत मनु हैं ।
सूर्य का नाम विवस्वान् है , उनके पुत्र होने के कारण मनु को वैवस्वत कहते हैं ।
इस मन्वन्तर के २७ महायुग बीत चुके हैं , २८वां कलियुग चल रहा है । चारों युगों के समूह को महायुग कहते हैं ।
चूंकि यह दोनों अवतार कल्प भर में दो ही होते हैं , अतः इसे परार्द्धावतार कहते हैं । कुछ पुराणों में इसका उल्लेख मिलता है । किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि अन्य कल्पों , मन्वन्तरों या युगों में वाराहावतार नहीं होता है , क्योंकि भगवान् की लीला इदमित्थं निश्चित रूप से किसी ने नहीं कही है ।
यह अत्यन्त दुर्ज्ञेय विषय है , अनेकों कारणों से पुराणों में मतभेद है ।
२ . कल्पावतार - पुराणों में कई जगह "कल्प भेदानुसारत:" कहा है , तुलसीदास जी ने भी मानस में-
"कल्प भेद हरि चरित सुहाये ।
भांति अनेक मुनीसन्ह गाये ।।"
"कल्प कल्प प्रति प्रभु अवतरहिं ।"
आदि प्रमाणों के अनुसार भगवान् के कुछ कल्पावतार होते हैं , जैसे नर-नारायण का अवतार कल्प पर्यन्त तपस्या करने के लिए हुआ ।
श्रीराम के कल्पावतार के सम्बन्ध में एक कल्प में स्वयम्भुव मनु और शतरूपा की तपस्या से दशरथ और कौशल्या के घर दूसरे जन्म में हुए ।
किसी कल्प में कश्यप-अदिति की तपस्या से तथा किसी कल्प में धर्मदत्त ब्राह्मण की वर प्राप्ति से रामावतार हुआ । ऐसी अनेकों कथाएं रामायणादि ग्रन्थों में उपलब्ध हैं ।
३ . मन्वन्तरावतार - एक मनु की आयु को मन्वन्तर कहते हैं ।
भागवत तथा विष्णु पुराणादि में भगवान् के मन्वन्तरावतार की कथाएं आती हैं , जैसे भागवत के आठवें स्कन्ध में भगवान् ने हिरणी के गर्भ से हरि का अवतार लिया , पांचवें मन्वन्तर में उन्होंने अजित अवतार लेकर सागर मन्थन किया , छठे मन्वन्तर में गज-ग्राह का उद्धार किया , सातवें में वामन के रूप में अवतार लिया और इस प्रकार अनेकों मन्वन्तरावतार भगवान् ने धारण किये ।
४ . युगावतार - काल भेद से भगवान् का एक अवतार २८वें चतुर्युगी के द्वापर के अन्त में कृष्ण के रूप में होता है ।
प्रत्येक द्वापर के अन्त में बलराम जी ही अवतार लेकर पृथ्वी का बोझ उतारते हैं , जैसे २५वें , २६वें और २७वें द्वापर के अन्त में तथा आगे आने वाले २९वें द्वापर के अन्त में भगवान् बलराम जी ने ही अवतार लेकर भू-भार हरण किया तथा अवतार लेकर पृथ्वी का भार उतारेंगे , किन्तु २८वें द्वापर में कृष्ण सहित बलराम जी का अवतार होता है ।
भागवत में कहा है
"एते चांशकला: प्रोक्ता: कृष्णास्तु भगवान् स्वयम्।"
शुकदेव जी परीक्षित जी से कहते हैं --- "हे राजन् यह सब भगवान् के अंश या कला अवतार हैं , श्रीकृष्ण स्वयं भगवान् हैं अर्थात् पूर्णावतार हैं ।"
इन्हीं से अवतारों का प्राकट्य होता है , लीला करके फिर उसी में लीन हो जाते हैं , इन्हें अवतारी या अंशी कहा गया है ।
इसी मन्वन्तर के ५६वें द्वापर के अन्त में फिर कृष्णावतार होगा ।
जब पूर्णब्रह्म कृष्ण के रूप में अवतरित होता है , तभी भगवान् विष्णु श्रीकृष्ण द्वैपायन व्यास के रूप में अवतरित होते हैं ।
अन्य द्वापरों के अन्त में ब्रह्मा , वशिष्ठ , वाल्मीकि आदि वेदव्यास के रूप में अवतरित होकर वेदों का विभाजन , महाभारत की रचना , पुराणों का संक्षेप और ब्रह्मसूत्र की रचना करते हैं ।
५ . युगावतार - प्रत्येक युग में भगवान् के अवतार होते हैं ।
सत्ययुग में ४ , त्रेता में ३ , द्वापर में २ और कलियुग में १ ।
सत्ययुग के प्रथम चरण में मत्स्य , द्वितीय चरण में कूर्म , तीसरे में वाराह और चौथे में नृसिंह अवतार होता है ।
त्रेता में वामन , परशुराम और रामावतार व द्वापर में बलराम-कृष्ण तथा कलियुग के अन्त में कल्कि अवतार ।
रविशराय गौड़
ज्योतिर्विद
अध्यात्मचिन्तक
9926910965
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