लज़्ज़ा अपनी बेच बेच कर, तेरी बहन की लाज मैं बचाती हूँ


कोठे पर जाकर पूछा तवायफ से
क्या है तेरे जिस्म की कीमत???
निःशब्द था सुनकर जब बोली वो..

कीमत मेरे जिस्म की क्या, कीमत तो तेरी भूख की है।
नुमाइश मेरे वदन की कहाँ, बिक्री यहाँ मेरी रूह की है।।

जिन नोटों को वदन की मेरे, कीमत ये तुम बोलते हो।
इज़्ज़त किसी की बहन बेटी की, भरे बाजार में तुम तोलते हो।।

कीमत गर मेरे जिस्म की होती, तो किसी एक ने खरीदा होता मुझे।
किस्मत ने किसी के भी आगे, यूँ ही ना परोसा होता मुझे।।

जज़्बातों की इस जंग में, जीत हवस की होती हर पल।
बदहवासी की इस आंधी में, उड़ते कागज के टुकड़े हर पल।।

चादर इन टुकड़ों को बना मैंने, वजूद को मेरे ढंक लिया है।
हो रहीं शिकार जो बहन बेटियां, उसी जगह खुद को रख लिया है।।

इंसान से दिखते इन हैवानों को, मैं नज़रें मिला के रिझाती हूँ।
बेहिसाब तपन सी अगन को इनकी, मैं सूखे आंसुओं से बुझाती हूँ।।

जिस्म की मेरे इस बाज़ार में, खुद ही बोली लगाती हूँ,
हाँ बेचकर मैं सांसें मेरी, तुम्हारी प्यास मिटाती हूँ।।

जिस लज़्ज़ा को औरत का, गहना एकमात्र है कहते हो तुम।
उस गहने को बेच बेच कर, अपने घर को चलाती हूँ।।

नग्न मेरा ये जिस्म नहीं, नग्न तो तेरा हैवान होता है।
वजूद मेरा जब चीख चीख कर, हर पल बेजुबान होता है।।

कीमत जिसको कहते तुम हो, सच्चाई मैं उसकी बताती हूँ।
लज़्ज़ा अपनी बेच बेच कर, तेरी बहन की लाज मैं बचाती हूँ।।

बिकते जिस्मों के इस धंधे में, बिकते बहुत से ज़मीर भी हैं।
सौ बार मरते सौ बार जनते, रूह बिन जिंदा ये शरीर भी हैं।।

कीमत तुम्हारी हवस की है जो शांत होने तक मेरे जिस्म को और फिर चंद कागज के टुकड़ों में मेरी रूह को तोलकर चली जाती है।।।
अरमान राज़

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