वर्तमान परिदृश्य में ऋषियों के चिंतन की प्रासंगिकता , वैदिक वांग्मय को आत्मसात करने से भारत बनेगा विश्व गुरु।
राष्ट्रीय एकता का स्वरुप वेदों में ऋषियों के चिंतन में राष्ट्र की संकल्पना विलक्षण हैं।
भारतीले सरस्वति या व: सर्वा उपब्रुवे ।
ताताश्रिये ॥
ऋग्वेद 1-188-8
अर्थात – हे भारत माता, हे धरती माँ, हे सरस्वती मैं प्रार्थना करता हूं कि आप हमें लक्ष्मी प्राप्त करने के लिये प्रेरणा दें। अर्थात हमें भारत माता, धरती माँ और विद्या का सम्मान करते हुए धन कमाना है।
वसुधैव कुटुम्बकम् भारतीय संस्कृति का एक आदर्श है । इस आदर्श की संकल्पना वैदिक है । हमारे धर्म ग्रंथों में इसको उल्लिखित किया गया है । हमारे वैदिक ऋषियों ने समग्र मानवता को एक माना है, सब के कल्याण की कामना की है यथा-
सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामया सर्वे भद्राणि पश्यन् तु मा कश्चिद् दुख भाग भवेत्
ऋग्वेद के निम्न मंत्र में भी मानव मात्र की समता की झलक स्पष्ट दिखाई पड़ती है
अज्येष्ठासो अकनिष्ठास एते सं भ्रातरो वावृधुः सौभगाय। युवा पिता स्वपा रुद्र एषां सुदुघा पृश्निः सुदिना मरुद्भ्यत्।।
वेदो में वर्णित समता, सहृदयता और स्नेह का यह आदर्श अधिकांशत: मानव जाति के संदर्भ में प्रतिष्ठित हुआ है । यही भावना आगे चलकर उपनिषद और गीता में विस्तृत हुई है। परम एकत्व के आदर्श के अंतर्गत समस्त प्राणियों और वनस्पतियों तक के प्रति अधिक समभाव प्रकट किया गया है। राष्ट्रीय एकता एक ऐसी भावना है जिसके अनुसार राष्ट्र के समस्त निवासी एक दूसरे के प्रति सद्भावना रखते हुए राष्ट्र की उन्नति हेतु परस्पर मिलकर कार्य करते हैं । वस्तुतः यह एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है जो राष्ट्र का एकीकरण करते हुए उसके निवासियों में पारस्परिक बंधुत्व और राष्ट्र के प्रति निजत्व का भाव जागृत करते हुए राष्ट्र को सुसंगठित और सशक्त बनाती है ।
इस प्रकार राष्ट्रीय एकता भाषा, धर्म, जाति, संप्रदाय, संस्कृति और सभ्यता की भिन्नता होते हुए भी उन्हें एकता के सूत्र में बांधकर राष्ट्र को सुदृढ़ बनाने में अपना महत्वपूर्ण योगदान देती है । राष्ट्रीय एकता राष्ट्र रूपी शरीर में आत्मा के समान है जिस प्रकार आत्मा विहीन शरीर प्रयोजनहीन हो जाता है उसी प्रकार राष्ट्र भी राष्ट्रीय एकता के अभाव में टूट जाता है । हमारा देश भारत एक ऐसा ही देश है जहां भाषा, धर्म, जाति, संप्रदाय, संस्कृति और सभ्यता आदि कि भिन्नता पायी जाती है । लेकिन फिर भी यह एक गौरवशाली राष्ट्र है और राष्ट्रीय एकता इसकी मौलिक विशेषता है ।
अभिवर्धताम् पयसाभि राष्ट्रेण वर्धताम्
राष्ट्र से संबंधित शब्दों का प्रयोग वैदिक साहित्य में अत्यधिक किया गया है । जैसे साम्राज्य, स्वराज्य, राज्य, महाराज्य आदि । इन सब में राष्ट्र शब्द ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं । राष्ट्र शब्द से आशय उस भूखंड विशेष से हैं जहां के निवासी एक संस्कृति विशेष में आबद्ध होते हैं । एक सुसमृद्ध राष्ट्र के लिए उस का स्वरुप निशित होना आवश्यक है । कोई भी देश एक राष्ट्र तभी हो सकता है जब उसमें देशेतरवासियों को भी आत्मसात करने की शक्ति हो । उनकी अपनी जनसंख्या, भू-भाग, प्रभुसत्ता, सभ्यता, संस्कृति, भाषा, साहित्य, स्वाधीनता और स्वतंत्रता तथा राष्ट्रीय एकता आदि समस्त तत्त्व हों, जिसकी समस्त प्रजा अपने राष्ट्र के प्रति आस्थावान हो । वह चाहे किसी भी धर्म, जाति तथा प्रांत का हो । प्रांतीयता और धर्म संकुचित होते हुए भी राष्ट्र की उन्नति में बाधक नहीं होते हैं क्योंकि राष्ट्रीयएकता राष्ट्र का महत्वपूर्ण आधारतत्व है, जो नागरिकों में प्रेम, सहयोग, धर्म, निष्ठा कर्तव्यपरायणता, सहिष्णुता तथा बंधुत्व आदि गुणों का विकास करता है । तथा धर्म तथा प्रांतीयता गौण हो जाती है । तब राष्ट्र ही सर्वोपरि होता हैं । इन गुणों के विकास से ही राष्ट्र स्वस्थ तथा शक्तिशाली होता है ।
इस प्रकार यह स्पष्ट कि ऋग्वेद में भारत, भारती अथवा भारतवासी के अनेक अर्थ हैं। जैसे, सब का पोषण करने वाला, अग्नि के समान तेजस्वी तथा भला करने वाला, विद्यावान, उत्तम शीलवान, वाणी के महत्व को समझने वाला, सुख प्रदान करने वाला, चरित्रवान, ज्ञान प्रदान करने वाला, योग्य मुखिया को चुनने वाला, मानवीय चेतना से प्रेरित, भारत माता, धरती माँ और विद्या का सम्मान सहित उपयोग करने वाला, शक्ति और कौशल के द्वारा धन पैदा करने वाला, अपनी रक्षा के लिये चौकस, ऊर्जा का सही उपयोग करने वाला, गुणवानों का सम्मान करने वाला, भारती, इला, सरस्वती तथा अग्नि की सहायता से कार्यों को यज्ञ की भावना से करने वाला इत्यादि। लोगों का कहना है कि ऐसे गुण वाले भारत के रहने वाले भारतवासी भारतीय हैं, बाकी सब इण्डिया में रहने वा ले इण्डियन हैं ।
ऋग्वेद के अनुसार हमारी राष्ट्र की परिभाषा का मुख्य आधार संस्कृति है, जीवन मूल्य हैं, और अथर्ववेद के कुछ सूक्त भी जनमानस में मानसिक एकता तथा समानता का उपदेश देते हुए इसी भावना को बल प्रदान, पुष्टि और सुदृढ़ करते हैं। अथर्ववेद के अनेक सूक्त राष्ट्र की भावनात्मक एकता के लिये बहुत ही उपयोगी ज्ञान, उपदेश देते हैं । इस दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण अथर्ववेद के 1-20, 6-64, 3-30, 3-8-5 आदि सूक्तों के अनुसार अथर्ववेद में मंत्रों में समानता (सामंजस्य) के होने पर बहुत बल दिया गया है। इच्छाओं, विचारों, उद्देश्यों, सकल्पों आदि की एकता के लिये जन मानस में उनके मनों का द्वेषरहित होना, आपस में प्रेम भावना का होना आवश्यक है। वेदों का यह ज्ञान मनुष्य मात्र की एकता का आह्वान करता है, किन्तु विभिन्न देशों की प्रतिद्वन्द्वता तथा कुछ देशों के जीवन मूल्य इन भावनाओं के विपरीत होने के परिप्रेक्ष्य में इऩ्हें हमारे राष्ट्र की रक्षा के लिये अनिवार्य शिक्षा मानना चाहिये ।
ऐसे सद्भावों को आत्मसात कर मानव को माधव मानकर कार्य करे निश्चय ही राष्ट्र 1 दिन विश्व गुरु बनेगा और समूचे विश्व में भारत की यश कीर्ति पताका फहराएगी।
रविशराय गौड़
ज्योतिर्विद
अध्यात्मचिन्तक
9926910965
राष्ट्रीय एकता का स्वरुप वेदों में ऋषियों के चिंतन में राष्ट्र की संकल्पना विलक्षण हैं।
भारतीले सरस्वति या व: सर्वा उपब्रुवे ।
ताताश्रिये ॥
ऋग्वेद 1-188-8
अर्थात – हे भारत माता, हे धरती माँ, हे सरस्वती मैं प्रार्थना करता हूं कि आप हमें लक्ष्मी प्राप्त करने के लिये प्रेरणा दें। अर्थात हमें भारत माता, धरती माँ और विद्या का सम्मान करते हुए धन कमाना है।
वसुधैव कुटुम्बकम् भारतीय संस्कृति का एक आदर्श है । इस आदर्श की संकल्पना वैदिक है । हमारे धर्म ग्रंथों में इसको उल्लिखित किया गया है । हमारे वैदिक ऋषियों ने समग्र मानवता को एक माना है, सब के कल्याण की कामना की है यथा-
सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामया सर्वे भद्राणि पश्यन् तु मा कश्चिद् दुख भाग भवेत्
ऋग्वेद के निम्न मंत्र में भी मानव मात्र की समता की झलक स्पष्ट दिखाई पड़ती है
अज्येष्ठासो अकनिष्ठास एते सं भ्रातरो वावृधुः सौभगाय। युवा पिता स्वपा रुद्र एषां सुदुघा पृश्निः सुदिना मरुद्भ्यत्।।
वेदो में वर्णित समता, सहृदयता और स्नेह का यह आदर्श अधिकांशत: मानव जाति के संदर्भ में प्रतिष्ठित हुआ है । यही भावना आगे चलकर उपनिषद और गीता में विस्तृत हुई है। परम एकत्व के आदर्श के अंतर्गत समस्त प्राणियों और वनस्पतियों तक के प्रति अधिक समभाव प्रकट किया गया है। राष्ट्रीय एकता एक ऐसी भावना है जिसके अनुसार राष्ट्र के समस्त निवासी एक दूसरे के प्रति सद्भावना रखते हुए राष्ट्र की उन्नति हेतु परस्पर मिलकर कार्य करते हैं । वस्तुतः यह एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है जो राष्ट्र का एकीकरण करते हुए उसके निवासियों में पारस्परिक बंधुत्व और राष्ट्र के प्रति निजत्व का भाव जागृत करते हुए राष्ट्र को सुसंगठित और सशक्त बनाती है ।
इस प्रकार राष्ट्रीय एकता भाषा, धर्म, जाति, संप्रदाय, संस्कृति और सभ्यता की भिन्नता होते हुए भी उन्हें एकता के सूत्र में बांधकर राष्ट्र को सुदृढ़ बनाने में अपना महत्वपूर्ण योगदान देती है । राष्ट्रीय एकता राष्ट्र रूपी शरीर में आत्मा के समान है जिस प्रकार आत्मा विहीन शरीर प्रयोजनहीन हो जाता है उसी प्रकार राष्ट्र भी राष्ट्रीय एकता के अभाव में टूट जाता है । हमारा देश भारत एक ऐसा ही देश है जहां भाषा, धर्म, जाति, संप्रदाय, संस्कृति और सभ्यता आदि कि भिन्नता पायी जाती है । लेकिन फिर भी यह एक गौरवशाली राष्ट्र है और राष्ट्रीय एकता इसकी मौलिक विशेषता है ।
अभिवर्धताम् पयसाभि राष्ट्रेण वर्धताम्
राष्ट्र से संबंधित शब्दों का प्रयोग वैदिक साहित्य में अत्यधिक किया गया है । जैसे साम्राज्य, स्वराज्य, राज्य, महाराज्य आदि । इन सब में राष्ट्र शब्द ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं । राष्ट्र शब्द से आशय उस भूखंड विशेष से हैं जहां के निवासी एक संस्कृति विशेष में आबद्ध होते हैं । एक सुसमृद्ध राष्ट्र के लिए उस का स्वरुप निशित होना आवश्यक है । कोई भी देश एक राष्ट्र तभी हो सकता है जब उसमें देशेतरवासियों को भी आत्मसात करने की शक्ति हो । उनकी अपनी जनसंख्या, भू-भाग, प्रभुसत्ता, सभ्यता, संस्कृति, भाषा, साहित्य, स्वाधीनता और स्वतंत्रता तथा राष्ट्रीय एकता आदि समस्त तत्त्व हों, जिसकी समस्त प्रजा अपने राष्ट्र के प्रति आस्थावान हो । वह चाहे किसी भी धर्म, जाति तथा प्रांत का हो । प्रांतीयता और धर्म संकुचित होते हुए भी राष्ट्र की उन्नति में बाधक नहीं होते हैं क्योंकि राष्ट्रीयएकता राष्ट्र का महत्वपूर्ण आधारतत्व है, जो नागरिकों में प्रेम, सहयोग, धर्म, निष्ठा कर्तव्यपरायणता, सहिष्णुता तथा बंधुत्व आदि गुणों का विकास करता है । तथा धर्म तथा प्रांतीयता गौण हो जाती है । तब राष्ट्र ही सर्वोपरि होता हैं । इन गुणों के विकास से ही राष्ट्र स्वस्थ तथा शक्तिशाली होता है ।
इस प्रकार यह स्पष्ट कि ऋग्वेद में भारत, भारती अथवा भारतवासी के अनेक अर्थ हैं। जैसे, सब का पोषण करने वाला, अग्नि के समान तेजस्वी तथा भला करने वाला, विद्यावान, उत्तम शीलवान, वाणी के महत्व को समझने वाला, सुख प्रदान करने वाला, चरित्रवान, ज्ञान प्रदान करने वाला, योग्य मुखिया को चुनने वाला, मानवीय चेतना से प्रेरित, भारत माता, धरती माँ और विद्या का सम्मान सहित उपयोग करने वाला, शक्ति और कौशल के द्वारा धन पैदा करने वाला, अपनी रक्षा के लिये चौकस, ऊर्जा का सही उपयोग करने वाला, गुणवानों का सम्मान करने वाला, भारती, इला, सरस्वती तथा अग्नि की सहायता से कार्यों को यज्ञ की भावना से करने वाला इत्यादि। लोगों का कहना है कि ऐसे गुण वाले भारत के रहने वाले भारतवासी भारतीय हैं, बाकी सब इण्डिया में रहने वा ले इण्डियन हैं ।
ऋग्वेद के अनुसार हमारी राष्ट्र की परिभाषा का मुख्य आधार संस्कृति है, जीवन मूल्य हैं, और अथर्ववेद के कुछ सूक्त भी जनमानस में मानसिक एकता तथा समानता का उपदेश देते हुए इसी भावना को बल प्रदान, पुष्टि और सुदृढ़ करते हैं। अथर्ववेद के अनेक सूक्त राष्ट्र की भावनात्मक एकता के लिये बहुत ही उपयोगी ज्ञान, उपदेश देते हैं । इस दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण अथर्ववेद के 1-20, 6-64, 3-30, 3-8-5 आदि सूक्तों के अनुसार अथर्ववेद में मंत्रों में समानता (सामंजस्य) के होने पर बहुत बल दिया गया है। इच्छाओं, विचारों, उद्देश्यों, सकल्पों आदि की एकता के लिये जन मानस में उनके मनों का द्वेषरहित होना, आपस में प्रेम भावना का होना आवश्यक है। वेदों का यह ज्ञान मनुष्य मात्र की एकता का आह्वान करता है, किन्तु विभिन्न देशों की प्रतिद्वन्द्वता तथा कुछ देशों के जीवन मूल्य इन भावनाओं के विपरीत होने के परिप्रेक्ष्य में इऩ्हें हमारे राष्ट्र की रक्षा के लिये अनिवार्य शिक्षा मानना चाहिये ।
ऐसे सद्भावों को आत्मसात कर मानव को माधव मानकर कार्य करे निश्चय ही राष्ट्र 1 दिन विश्व गुरु बनेगा और समूचे विश्व में भारत की यश कीर्ति पताका फहराएगी।
रविशराय गौड़
ज्योतिर्विद
अध्यात्मचिन्तक
9926910965
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