क्या आप जानते हैं नवग्रहों एवं ऊपर के सात लोक और इक्कीस नरको का वर्णन?

नवग्रहों एवं ऊपर के सात लोक , वायु के सात स्कन्ध, सात पाताल, इक्कीस नरक, ब्रह्माण्डकटाह एवं काल-मान आदि का निरूपण

नारदजी कहते हैं- कुरुश्रेष्ठ, भूमि से लाख योजन ऊपर सूर्यमण्डल है। भगवान् सूर्य के रथ का विस्तार नौ सहस्त्र योजन है। उसका ईषादण्ड (हरसा) अट्ठारह हजार योजन बड़ा है। इसकी धुरी डेढ़ करोड़, साढ़े सात लाख योजन की है। उसी में सूर्य के रथ का पहिया लगा है। उस पहिये में तीन नाभि, पाँच अरे और छः नेमि बताये गये हैं। सूर्य के रथ का जो दूसरा धुरा है, उसका माप साढ़े पैंतालीस हजार योजन है। धुरे का जो प्रमाण है, वही दोनों युगार्द्धों का भी है। उस रथ का जो छोटा धुरा और युगार्द्ध है, वह ध्रुव के आधार पर स्थित है और दूसरे बायें धुरे में जो पहिया लगा है, वह मानसोत्तर पर्वत पर स्थित है वेद के जो सात छन्द हैं, वे ही सूर्यरथ के सात अश्व हैं। उनके नाम सुनो-गायत्री, बृहती, उष्णिक्, जगती, त्रिप्टुप्, अनुष्टुप् और पङ्क्ति-ये छन्द ही सूर्य के घोड़े बताये गये हैं। सदा विद्यमान रहने वाले सूर्य का न तो कभी अस्त होता और न उदय ही होता है। सूर्य का दिखायी देना ही उदय है और उनका दृष्टि से ओझल हो जाना ही अस्त है।
         
इन्द्र, यम, वरुण और कुबेर- इनमें से किसी एक की पुरी में प्रकाशित होते हुए सूर्यदेव शेष तीन पुरियों और दो विकोणों (कोनों) को प्रकाशित करते हैं और जब किसी कोन की दिशा में स्थित होते हैं तब वे शेष तीन कोनों और दो पुरियों को प्रकाशित करते हैं। उत्तरायण के प्रारम्भ में सूर्य मकर राशि में जाते हैं, उसके पश्चात् वे कुम्भ और मीन राशियों में एक राशि से दूसरी राशि पर होते हुए जाते हैं। इन तीनों राशियों को भोग लेने पर सूर्यदेव दिन और रात दोनों को बराबर करते हुए विपुवत् रेखा पर पहुँचते हैं। उसके बाद से प्रतिदिन रात्रि घटने लगती है और दिन बढ़ने लगता है। फिर मेष तथा वृष राशि का अतिक्रमण करके मिथुन के अन्तमें उत्तरायण के अन्तिम सीमा पर उपस्थित होते हैं और कर्क राशि पर पहुँचकर दक्षिणायन का आरम्भ करते हैं। जैसे कुम्हार के चाक के सिरे बैठा हुआ जीव बड़ी शीध्रता से घूमता है उसी प्रकार सूर्य भी दक्षिणायन को पार करने में शीघ्रता से चलते हैं। वे वायुवेग से चलते हुए अत्यन्त वेगवान् होने के कारण बहुत दूर की भूमि भी थोड़े में पार कर लेते हैं। कुलालचक्र के मध्य में स्थित जीव जिस प्रकार मन्द गति से चलता है, उसी प्रकार उत्तरायण में सूर्य मन्द गति से चलते हैं, अत: वे थोड़ी-सी भूमि को भी चिरकाल में पार करते हैं।
 
     
सन्ध्या काल आने पर मन्देह नामक राक्षस भगवान् सूर्य को खा जाने की इच्छा करते हैं। उन राक्षसों को प्रजापति का यह शाप है कि उनका शरीर तो अक्षय रहेगा, परंतु मृत्यु प्रतिदिन होगी। अत: सन्ध्याकाल में उन राक्षसों के साथ सूर्य का बड़ा भयानक युद्ध होता है। उस समय द्विजलोग गायत्री मन्त्र से पवित्र किये जल का जो अर्घ्य देते हैं, उससे वे पापी राक्षस जल जाते हैं। इसलिये सदा सन्ध्योपासना करनी चाहिये। जो सन्ध्योपासना नहीं करते, वे कृतघ्न होने के कारण रौरव नरक में पड़ते हैं। प्रत्येक मास में भिन्न-भिन्न सूर्य, ऋषि, गन्धर्व, राक्षस, अप्सरा, यक्ष तथा सर्प-इन सातों से संयुक्त भगवान् सूर्य का रथ गमन करता है। धाता, अर्यमा, मित्र, वरुण, विवस्वान्, इन्द्र, पूषा, सविता, भग, त्वष्टा तथा विष्णु ये बारह आदित्य, चैत्र आदि मासों में सूर्यमण्डल में अधिकारी माने गये हैं।
         
सूर्य के स्थान से लाख योजन दूर चन्द्रमा का मण्डल स्थित है, चन्द्रमा का भी रथ तीन पहियों वाला बताया जाता है, उसमें बायीं और दाहिनी ओर कुन्द के समान श्वेत दस घोड़े जुते होते हैं। चन्द्रमा से पूरे एक लाख योजन ऊपर सम्पूर्ण नक्षत्रमण्डल प्रकाशित होता है। नक्षत्रों की संख्या अस्सी समुद्र चौदह अरब और बीस करोड़ बतायी गयी है। नक्षत्रमण्डल से दो लाख योजन ऊपर बुध का स्थान है। चन्द्रनन्दन बुध का रथ वायु तथा अग्निद्रव्य से बना हुआ है, उसमें वायु के समान वेग वाले आठ पीले रंग के घोड़े जुते रहते हैं। बुध से भी दो लाख योजन ऊपर शुक्राचार्य का स्थान माना गया है, उनके रथ में भी आठ घोड़े जोते जाते हैं। शुक्र से लाख योजन ऊपर मंगल हैं, इनका रथ सुवर्ण के समान कान्ति वाले आठ घोड़ों से युक्त होता है। मंगल से दो लाख योजन ऊपर देव पुरोहित बृहस्पति का स्थान माना जाता है, उनका रथ सुवर्ण का बना हुआ है, उसमें श्वेत वर्ण के आठ घोड़े जोते जाते हैं। बृहस्पति से दो लाख योजन ऊपर शनैश्चर का स्थान है। उनका रथ आकाश से उत्पन्न हुए आठ चितकबरे घोड़ों द्वारा जोता जाता है। राहु के रथ में भ्रमर के समान रंग वाले आठ घोड़े हैं, वे एक ही बार जोत दिये गये हैं और सदा उनके धूसर रथ को खींचते रहते हैं। उनकी स्थिति सूर्यलोक के नीचे मानी गयी है। शनैश्चर से एक लाख योजन ऊपर सप्तर्षियों का मण्डल है और उनसे भी लाख योजन ऊपर ध्रुव की स्थिति है। ध्रुव समस्त ज्योतिर्मण्डल के मेंह (केन्द्र) हैं वे भी शिशुमार चक्र के पुच्छ के अग्रभाग में स्थित हैं, जिन्हें भगवान् वासुदेव का सर्वोत्तम एवं अविनाशी भक्त कहते हैं। अर्जुन ! यह सारा ज्योतिर्मण्डल वायुरूपी डोर से ध्रुव में बँधा है। सूर्यमण्डल का विस्तार नौ हजार योजन है, उससे दूना चन्द्रमा का मण्डल बताया गया है। मण्डलाकार राहु इन दोनों के बराबर होकर पृथ्वी की निर्मल छाया ग्रहण करके उनके नीचे चलता है। शुक्राचार्य का मण्डल चन्द्रमा के सोलहवें भाग के बराबर है। बृहस्पतिमण्डल का विस्तार शुक्राचार्य से एक चौथाई कम है। इसी प्रकार मंगल, शनैश्चर और बुध- ये बृहस्पति की अपेक्षा भी एक चौथाई कम हैं। नक्षत्रमण्डल का परिमाण पाँच सौ, चार सौ, तीन सौ, दो सौ तथा एक सौ से लेकर कम-से-कम एक योजन, आध योजन तक का है, इससे छोटा कोई नक्षत्र नहीं है।
         
पृथ्वी पर स्थित सभी लोक, जहाँ पैदल जाया जा सकता है, भूलोक कहलाता है। भूमि और सूर्य के मध्यवर्ती लोक को भुवलोक कहते हैं। ध्रुव तथा सूर्यलोक के बीच जो चौदह लाख योजन का अवकाश है, उसे लोकस्थिति का विचार करने वाले विज्ञ पुरुषों ने स्वर्ग लोक कहा है। ध्रुव से
ऊपर एक करोड़ योजन तक महलोक बताया गया है। उससे ऊपर दो करोड़ योजन तक जनलोक है, जहाँ सनकादि निवास करते हैं। उससे ऊपर चार करोड़ योजन तक तपोलोक माना गया है, जहाँ वैराज नाम वाले देवता सन्ताप रहित होकर निवास करते हैं। तपो लोक से ऊपर उसकी अपेक्षा छः गुने विस्तार वाला सत्यलोक विराजमान है, जहाँ ऐसे लोग निवास करते हैं, जिनकी पुनर्मृत्यु नहीं होती (अर्थात् जो वहीं ज्ञान प्राप्त करके ब्रह्माजी के साथ मुक्त हो जाते हैं। इस संसार में उनकी पुनरावृत्ति नहीं होती)। सत्यलोक ही ब्रह्मलोक माना गया है। उसके ऊपर अठारह करोड़ पचीस लाख योजन परम कल्याणमय धाम प्रकाशित होता है: उसकी कहीं उपमा नहीं है, वह सर्वोपरि विराजमान है।
         
भूलोक, भुवरलोक और स्वलोंक - इन तीनों को त्रैलोक्य कहते हैं। यह त्रैलोक्य कृतक (अनित्य) लोक है। जनलोक, तपोलोक तथा सत्यलोक- ये तीनों अकृतक (नित्य) लोक हैं। कृतक और अकृतक लोकों के मध्य में महलोक की स्थिति मानी गयी है। कल्प के अन्तमें जब महाप्रलय होता है, उस समय त्रिलोकी सर्वथा नष्ट हो जाती है; महर्लोक जनशून्य तो हो जाता है, परंतु उसका अत्यन्त विनाश नहीं होता। ये पुण्यकर्मो द्वारा प्राप्त होने वाले सात लोक बताये गये हैं; वेदादि शास्त्रो में कहे हुए यज्ञ, दान, जप, होम, तीर्थ और ब्रतसमुदाय तथा अन्यान्य साधनों से पूर्वोक्त सातों लोक साध्य माने गये हैं। इन सबसे ऊपर ब्रह्माण्ड के शीर्ष भाग से शीतल कल्याणमयी जल धारा के रूप में श्रीगंगाजी उतरती हैं और समस्त लोकों को आप्लावित करके मेरुपर्वत पर आती हैं। वहाँ से क्रमश: सम्पूर्ण भूतल और पाताल लोक में प्रवेश करती हैं। ब्रह्माण्ड के शिखर पर स्थित हुई गंगा देवी सदैव उसके द्वार पर निवास करती हैं। कोटि-कोटि देवियों तथा पिंगल नामक रुद्र से घिरी हुई महान् बल और पराक्रम से सम्पन्न श्रीगंगादेवी सदा ब्रह्माण्ड की रक्षा तथा दुष्टगणों का संहार करती हैं।
         
अर्जुन ! वायुकी सात शाखाएँ हैं, उनकी स्थिति जिस प्रकार है, वह बतलाता हूँ सुनो,- पृथ्वी को लाँघ कर मेघ मण्डल पर्यन्त जो वायु स्थित है, उसका नाम 'प्रवह' है। वह अत्यन्त शक्तिमान् है और वही बादलों को इधर-उधर उड़ाकर ले जाता है। धूम तथा गर्मी से उत्पन्न होने वाले मेघों को वह प्रवह वायु ही समुद्र जल से परिपूर्ण करती है, जिससे वे मेघ काली घटा के रूप में परिणत हो अतिशय वर्षा करने वाले होते हैं। वायु की दूसरी शाखा का नाम 'आवह' है, जो सूर्यमण्डल में बँधा हुआ है। उसी के द्वारा ध्रुव से आबद्ध होकर सूर्यमण्डल घुमाया जाता है। तीसरी शाखा का नाम 'उद्वह' है, जो चन्द्रलोक में प्रतिष्ठित है। इसी के द्वारा ध्रुव से सम्बद्ध होकर यह चन्द्रमण्डल घुमाया जाता है। चौथी शाखा का नाम 'संवह' है, जो नक्षत्र मण्डल में स्थित है। उसी के द्वारा वायुमयी डोरियों से ध्रुव में आबद्ध होकर सम्पूर्ण नक्षत्र मण्डल घूमता रहता है। पाँचवीं शाखा का नाम 'विवह' है, वह ग्रहमण्डल में स्थित है। उसी के द्वारा यह ग्रहचक्र ध्रुव से सम्बद्ध होकर घूमा करता है। वायु की छठी शाखा का नाम 'परिवह' है, जो सप्तर्षि मण्डल में स्थित है। इसी के द्वारा ध्रुव से सम्बद्ध हो सप्तर्षि आकाश में भ्रमण करते हैं। वायु के सातवें स्कन्ध का नाम 'परावह' है, जो ध्रुव में आबद्ध है। उसी के द्वारा ध्रुवचक्र तथा अन्यान्य मण्डल दृढ़ता पूर्वक एक स्थान पर स्थापित हैं। ध्रुव से ऊपर जो स्थान है, वहाँ न तो सूर्य प्रकाशित होते हैं और न नक्षत्र एवं तारे ही उदित होते हैं। वहाँ के लोग अपने ही तेज और अपनी ही शक्ति से सदा स्थिर रहते हैं। इस प्रकार ऊर्ध्वलोकों का वर्णन किया गया है। अब पाताल का वर्णन सुनो।
         
अर्जुन ! भूमि की ऊँचाई सत्तर हजार योजन है। इसके भीतर सात पाताल हैं, जो एक-दूसरे से दस-दस हजार योजन की दूरी पर हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं- अतल, वितल, नितल, रसातल, तलातल, सुतल तथा पाताल। कुरुनन्दन! वहाँ की भूमियाँ सुन्दर महलों से सुशोभित हैं। वे क्रमश: कृष्ण, शुक्ल, अरुण, पीत, कंकरीली, पथरीली तथा सुवर्णमयी हैं। उन पातालों में दानव, दैत्य और नाग सैकड़ों संघ बनाकर रहते हैं। वहाँ पर न गर्मी है, न सर्दी है, न वर्षा है, न कोई कष्ट। सातवें पाताल में 'हाटकेश्वर' शिवलिंग है, जिसकी स्थापना ब्रह्माजी के द्वारा हुई है। वहाँ अनेकानेक नागराज उस शिवलिंग की आराधना करते हैं। पाताल के नीचे बहुत अधिक जल है और उसके नीचे नरकों की स्थिति बतायी गयी है, जिनमें पापी जीव गिराये जाते हैं। महामते ! उनका वर्णन सुनो- यों तो नरकों की संख्या पचपन करोड़ है; किंतु उनमें रौरव से लेकर श्वभोजन तक इक्कीस प्रधान हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं- रौरव, शुकर, रोध, ताल, विशसन, महाज्वाल, तप्तकुम्भ, लवण, विमोहक, रुधिरान्ध, वैतरणी, कृमिश, कृमिभोजन, असिपत्रवन, कृष्ण, भयंकर लालाभक्ष, पापमय पूयवह, वह्निज्चाल, अध:शिरा, संदंश, कालसूत्र, तमोमय-अवीचि, श्वभोजन और प्रतिभाशून्य अपर अवीचि तथा ऐसे ही और भी नरक बड़े भयंकर हैं। झूठी गवाही देने वाला मनुष्य रौरव नरक में पड़ता है। गौओं तथा ब्राह्मणों को कहीं बंद करके रोक रखने वाला पापी रोध नरक में जाता है। मदिरा पीने वाला शूकर नरक में और नरहत्या करने वाला ताल नरक में पड़ता है। गुरु-पत्नी के साथ व्यभिचार करने वाला पुरुष तप्तकुम्भ नामक नरक में गिराया जाता है तथा जो अपने भक्त की हत्या करता है, उसे तप्तलोह नरक में तपाया जाता है। गुरुजनों का अपमान करने वाला पापी महाज्वाल नरक में डाला जाता है। वेद-शास्त्रों को नष्ट करने वाला लवण नामक नरक में गलाया जाता है। धर्म-मर्यादा का उल्लंघन करने वाला विमोहक नरक में जाता है। देवताओं से द्वेष रखने वाला मनुष्य कृमिभक्ष नामक नरक में पड़ता है। दूषित भावना से तथा शास्त्र विधि के विपरीत यज्ञ करने वाला पुरुष कृमिश नरक में जाता है। जो देवताओं और पितरों का भाग उन्हें अर्पण किये बिना ही अथवा उन्हें अर्पण करने से पहले ही भोजन कर लेता है, वह लालाभक्ष नामक नरक में यमदूतों द्वारा गिराया जाता है।
     
   
सब जीवों से व्यर्थ वैर रखने वाला तथा छल पूर्वक अस्त्र-शस्त्रों का निर्माण करने वाला विशसन नरक में गिराया जाता है। असत्प्रतिग्रह ग्रहण करने वाला अधोमुख नरक में और अकेले ही मिष्टान्न भोजन करने वाला पूयवह नरक में पड़ता है। मुर्गा, कुत्ता, बिल्ली तथा पक्षियों को जीविका के लिये पालने वाला मनुष्य भी पूयवह नरक में ही पड़ता है। जो दूसरों के घर, खेत, घास और अनाज आदि में आग लगाता है, वह रुधिरान्ध नरक में डाला जाता है। नक्षत्र विद्या तथा नट एवं मल्लों की वृत्ति से जीविका चलाने वाला मनुष्य वैतरणी नामक नरक में जाता है। जो धन और जवानी के मद से उन्मत्त होकर दूसरों के धन का अपहरण करता है, वह कृष्ण नामक नरक में पड़ता है। व्यर्थ ही वृक्षों को काटने वाला मनुष्य असिपत्रवन में जाता है। जो कपट वृत्ति से जीविका चलाते हैं, वे सब लोग वहिनज्वाल नामक नरक में गिराये जाते हैं। परायी स्त्री और पराये अन्न का सेवन करने वाला पुरुष संदंश नरक में डाला जाता है। जो दिन में सोते हैं तथा व्रत का लोप किया करते हैं और जो शरीर के मद से उन्मत्त रहते हैं, वे सब लोग श्वभोजन नामक नरक में पड़ते हैं। जो भगवान् शिव और विष्णु को नहीं मानते, उन्हें अवीचि नरक में जाना पड़ता है।
         
इस प्रकार के शास्त्रनिषिद्ध कर्मो के आचरण रूप पापों से पापी जीव सहस्रों अत्यन्त घोर नरकों में अवश्य ही गिरते हैं। अत: जो मनुष्य इन नरकों से छुटकारा पाना चाहता हो, उसे वैदिक मार्ग का अवलम्बन करके भगवान् विष्णु और शिव दोनों की आराधना करनी चाहिये। नरकों के निम्न भाग में कालाग्नि की स्थिति है, कालाग्नि के नीचे मण्डूक और मण्डूक के नीचे अनन्त हैं, जिनके मस्तक के अग्रभाग में यह सम्पूर्ण जगत् सरसों की भाँति प्रतीत होता है। इस प्रकार अनन्त प्रभाव के कारण वे इस मानव-जगत् में अनन्त कहलाते हैं पद्म, कुमुद, अंजन और वामन-ये दिग्गज भी वहीं स्थित हैं। इनके निम्नभाग में अण्डकटाह है, जहाँ एकवीरा नाम वाली देवी विराजमान हैं। अण्डकटाह का परिमाण चौवालीस करोड़, नवासी लाख, अस्सी हजार है। उसमें कपालीशा देवी रहती हैं, जो कोटि-कोटि देवियों से घिर कर हाथ में दण्ड लिये वहाँ पहरा देती हैं। अनन्त नाम वाले भगवान् संकर्षण के नि:श्वास वायु से प्रेरित होकर दाहक अग्नि प्रज्वलित हो उठती है। इस प्रकार ये भगवान् अनन्त ही कालाग्नि को प्रेरित करते हैं, जिससे वह कल्पान्त के समय सम्पूर्ण जगत् को दग्ध कर डालती है। अर्जुन! इस प्रकार पाताल के अधोभाग में स्थान का निर्माण हुआ है। जिन्होंने इस परम आश्चर्यमय ब्रह्माण्ड की स्थापना की है, उन ब्रह्मा, विष्णु तथा महादेवजी को मैं नित्य नमस्कार करता हूँ। विष्णुलोक और रुद्रलोक इस ब्रह्माण्ड के बाहर बताया जाता है। सदा भगवान् विष्णु और शिव की उपासना करने वाले मुक्त पुरुष ही वहाँ जाते हैं। उस दिव्य धाम का वर्णन केवल ब्रह्माजी ही कर सकते हैं। हम लोगों की वहाँ गति नहीं है। यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड सब ओरसे कड़ाह द्वारा ढका हुआ है, ठीक उसी प्रकार जैसे कपित्थ का बीज कड़ाह से (उसके गोलाकार छिलके से) आच्छादित रहता है। यह समूचा अण्डकटाह अपने से दस गुने प्रमाण वाले जल से घिरा है। वह जल भी दस गुने विस्तार वाले तेज से, तेज वायु से, वायु आकाश से, आकाश अहंकार से तथा अहंकार महत्तत्त्व से घिरा हुआ है। तथा उस महत्त्त्व को भी सर्व प्रधान प्रकृति घेरकर स्थित है। पहले जो छ: आवरण कहे गये हैं, उन सबको विद्वान् पुरुष उत्तरोत्तर दस गुना बतलाते हैं और सातवाँ आवरण प्रकृति का है। उसे अनन्त कहा गया है। उसके भीतर ऐसे-ऐसे करोड़ों और अरबों ब्रह्माण्ड स्थित हैं तथा वे सभी ऐसे ही हैं, जैसा कि यह ब्रह्माण्ड बताया गया है। कुन्तीनन्दन ! जिनका वैभव (ऐश्वर्य) ऐसा है, उन भगवान् सदाशिव को मैं प्रणाम करता हूँ। अहो! जो ऐसे मोह में फँस जाय कि तारने वाले, भगवान् शिव का भजन तक न कर सके, उससे बढ़कर मूर्ख कौन होगा? वह मूढ़ तो बड़ा पापात्मा है।
         
अब मैं तुमसे काल का मान बताऊँगा, उसे सुनो-विद्वान् लोग पंद्रह निमेष की एक 'काष्ठा' बताते हैं। तीस काष्ठा की एक 'कला' गिननी चाहिये। तीस कला का एक 'मुहूर्त' होता है। तीस मुहूर्त के एक 'दिन-रात' होते हैं। एक दिन में तीन-तीन मुहूर्त वाले पाँच काल होते हैं, उनका वर्णन सुनो-'प्रात:काल', 'संगवकाल', 'मध्याह्नकाल', 'अपराह्नकाल' तथा पाँचवाँ 'सायाह्नकाल'। इनमें पंद्रह मुहूर्त व्यतीत होते हैं। पंद्रह दिनरात का एक 'पक्ष' कहलाता है। दो पक्ष का एक 'मास' कहा गया है। दो सौरमास की एक 'ऋतु' होती है। तीन ऋतुओं का एक 'अयन' होता है। तथा दो अयनों का एक वर्ष माना गया है। विज्ञ पुरुष मास के चार? और वर्ष के पाँच भेद बतलाते हैं। पहला संवत्सर, दूसरा परिवर्सर, तीसरा इद्धत्सर, चौथा अनुवत्सर तथा पाँचवाँ युगवत्सर है। यही वर्ष गणना की निश्चित संख्या है। मनुष्यों के एक मास का पितरों का एक दिन-रात होता है; कृष्णपक्ष उनका दिन बताया गया है और शुक्लपक्ष उनकी रात्रि। मनुष्यों के एक वर्ष का देवताओं का एक दिन माना गया है। उत्तरायण तो उनका दिन है। और दक्षिणायन रात्रि। देवताओं का एक वर्ष पूरा होनेपर सप्तर्षियों का एक दिन माना गया है। सप्तर्षियों के एक वर्ष में ध्रुव का एक दिन होता है। मानववर्ष के अनुसार सत्रह लाख अट्ठाईस हजार वर्षों का सत्ययुग माना गया है। मानवमान से ही बारह लाख छानबे हजार वर्षों का त्रेतायुग कहा गया है। आठ लाख चौसठ हजार वर्षों का द्वापर होता है और चार लाख बत्तीस हजार वर्षों का कलियुग माना गया है। इन चारों के योग से देवताओं का एक युग होता है। ऐसे इकहत्तर युगों से कुछ अधिक काल तक मनु की आयु मानी गयी है। चौदह मनुओं का काल व्यतीत हो जानेपर ब्रह्मा का एक दिन पूरा होता है। जो एक हजार चतुर्युगों का माना गया है; वही कल्प है। अब कल्पों के नाम श्रवण करो- भवोद्भव, तपोभव्य ऋतु, वहिन, वराह, सावित्र, औसिक, गान्धार, कुशिक, ऋषभ, खड्ग, गान्धारीय, मध्यम, वैराज, निषाद, मेघवाहन, पंचम, चित्रक, ज्ञान, आकूति, मीन, दंश, बृंहक, श्वेत, लोहित, रक्त, पीतवासा, शिव, प्रभु तथा सर्वरूप- इन तीस कल्पों का ब्रह्माजी का एक मास होता है। ऐसे बारह मासों का एक वर्ष होता है। तथा ऐसे ही सौ वर्षों तक ब्रह्माजी की आयु का पूर्वार्ध मानना चाहिये। पूर्वार्ध के समान ही अपरार्ध भी है। इस प्रकार ब्रह्माजी की आयु का मान बताया गया। अर्जुन! भगवान् विष्णु तथा भगवान् शंकरजी की आयु का वर्णन करने में मैं सर्वथा असमर्थ हूँ। कहाँ तो मेरी छोटी बुद्धि और कहाँ अनन्त अपार भगवान् विष्णु और शिव (वे तो कालातीत एवं महाकाल स्वरूप हैं)। पाताल लोक में भी देवताओं के मान से ही गणना की जाती है। ये सब बातें अपनी बुद्धि के अनुसार मैंने तुम्हें बतायी हैं।
                           
 १. सौरमास, चान्द्रमास, नाक्षत्रमास और सावनमास- ये ही मास के चार भेद हैं। सौरमास का आरम्भ सूर्य की संक्रान्ति से होता है। सूर्य की एक संक्रान्ति से दूसरी संक्रान्ति तक का समय सौर मास है। यह मास प्राय: तीस-इकतीस दिन का होता है। कभी-कभी उनतीस और बत्तीस दिन का भी होता है चन्द्रमा की कला की हरास-वृद्धि वाले दो पक्षों का जो एक मास होता है, वही चान्द्रमास है। यह दो प्रकार का है - शुक्ल प्रतिपदा से आरम्भ होकर अमावास्या को पूर्ण होने वाला 'अमान्त' मास मुख्य चान्द्रमास है। कृष्ण प्रतिपदा से पूर्णिमा तक पूरा होने वाला गौण चान्द्रमास है। यह तिथि की हास-वृद्धि के अनुसार २९. ३०, २८ एवं २७ दिनों का भी हो जाता है। जितने समय में चन्द्रमा अश्वनी से लेकर रेवती तक के नक्षत्रों में विचरण करता है, वह काल नाक्षत्र मास कहलाता है। यह लगभग २७ दिनों का ही होता है सावनमास तीस दिनों का होता है। यह किसी भी तिथि से प्रारम्भ होकर तीसवें दिन समाप्त होता है। प्राय: व्यापार और व्यवहार आदि में इसका उपयोग होता है। इसके भी सौर और चान्द्र ये दो भेद हैं। सौर सावनमास सौरमास की किसी भी तिथि से प्रारम्भ होकर उसके तीसवें दिन पूर्ण होता है। चान्द्र सावनमास चान्द्रमास की किसी भी तिथि से प्रारम्भ होकर उसके तीसवें दिन समाप्त माना जाता है। प्रत्येक संवत्सर में बारह सौर और बारह चान्द्रमास होते हैं। परंतु सौरवर्ष ३६५ दिन का और चान्द्र वर्ष ३५५ दिन का होता है; जिससे दोनों में प्रतिवर्ष दस दिन का अन्तर पड़ता है। इस वैषम्य को दूर करने के लिये प्रति तीसंरे वर्ष बारह की जगह तेरह चान्द्रमास होते हैं। ऐसे बढ़े हुए मास को अधिमास या मलमास कहते हैं।

         
बृहस्पति की गति के अनुसार प्रभव आदि साठ वर्षों में बारह युग होते हैं तथा प्रत्येक युग में पाँच पाँच वत्सर होते हैं। बारह युगों के नाम ये हैं- प्रजापति, धाता वृष, व्यय, खर, दुर्मुख, प्लब, पराभव, रोधकृत, अनल, दुर्मति और क्षय। प्रत्येक युग के जो पाँच वत्सर हैं, उनमें से प्रथम का नाम संवत्सर है। दृूसरा परिवर्सर, तीसरा इद्वत्सर, चौथा अनुवत्सर और पाँचवाँ युगवत्सर है। इनके पृथक् पृथक् देवता होते हैं; जैसे संवत्सर के देवता अग्नि माने गये हैं।
         
संदर्भ स्कन्ध पुराण महेश्वर खंड अध्याय 10
             
रविशराय गौड़
ज्योतिर्विद
अध्यात्मचिन्तक
9926910965

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