राम नाम आधार जिन्हें वो जल में राह बनाते हैं...
-रामलीला में लंका दहन के बाद रावण-अंगद संवाद
-दोनों ओर से युद्ध का हुआ ऐलान
गुरुग्राम। जैकमपुरा स्थित श्री दुर्गा रामलीला के 10वें दिन की लीला में रावण-अंगद संवाद के बाद युद्ध के ऐलान पर समाप्त हुई। इसके बाद की लीला रावण के महल से शुुरु होती है। वे अपनी रानी मंदोदरी के साथ मंत्रणा करते हैं।
मंदोदरी (सुमित नेमका) रावण (आदित्य मीणा) से कहती है कि हे प्राणनाथ-हनुमत जैसे जिनके पायत हैं वे कैसे मारे जाएंगें, तुम लड़के जिन्हें समझते हो वे लड़के तुम्हे हराएंगें। इसलिए मेरी एक बात माने लो और सीता को उन्हें वापस लौटा दो। रावण मंदोदरी से कहते हैं कि कल की घटना से तुम विचलित हो गई हो। और उन्हें तुम तो भगवान समझती हो-भगवान मानकर भी पगली क्यों बातें करती हो हल्की, मेरे कारण वो आया है ये महिमा है मेरे बल की।
इसके बाद रावण दरबार में पहुंचकर मंत्रियों से मंत्रणा करते हैं कि आखिर अब आगे क्या किया जाए। इसी बीच दरबार में विभीषण प्रवेश करते हुए कहते हैं-हे भ्राता रावण, आपने अपने मंत्रियों की राय तो जान ली है। ये राय सिवाय आपके नाश के कुछ नहीं है। इसलिए मेरी बात मानो और श्री राम से माफी मांगकर सीता उन्हें लौटा दो। गुस्से से लाल रावण कहते हैं-बैरी के आगे सिर झुकाए ये रावण को मंजूर नहीं, मिट जाना मंजूर है मुझे पर सीता देना मंजूर नहीं।
इसी बीच विभीषण को रावण लात मारकर लंका से ही निकाल देते हैं। विभीषण वहां से निकलकर रामा दल की ओर चल देते हैं। उसे दूर से आता देख राम कहते हैं कि यह कौन है जो लंका की ओर से आ रहा है। सुग्रीव कहते हैं कि लंका से आ रहा है तो हमारा शुभचिंतक नहीं हो सकता। इसलिए इसको सजा देते हैं। इस पर राम कहते हैं कि मेरी शरण में आए हुए को सजा नहीं, प्रेम मिलता है। हनुमान जी विभीषण के पास जाकर यहां आने का कारण पूछते हैं तो बताया जाता है कि रावण ने उन्हें लंका से निकाल दिया है। फिर विभीषण राम से मिलते हैं और राम उन्हें अपनी सेना में शामिल कर लेते हैं। इसके बाद होती है समुद्र पार करने की तैयारी। समुद्र में पुल बनाने के लिए नल और नील को पत्थर देकर उनके हाथों रखवाए जाते हैं। क्योंकि उनके हाथों से रख गए पत्थर एक श्राप के तहत डूबते नहीं हैं।
राम नाम आधार जिन्हें वो जल में राह बनाते हैं,
जिन पर कृपा राम करके वो पत्थर भी तर जाते हैं।
इस तरह से लंका तक पुल बनाकर वानर सेना कूच कर जाती है। समुद्र पार करने के बाद एक बार शांतिदूत अंगद (मनु सिंगेलिया) को रावण के दरबार में भेजा जाता है। वहां रावण-अंगद का संवाद होता है। रावण से अंगद कहते हैं कि वे श्री राम से क्षमा मांगकर सीता जी को लौटा दें। रावण ने क्रोधित होकर कहा-मुझसा पंडित, मुझसा योद्धा त्रिभुवन में और न दूजा है, अपने शीशों को काट-काट कर शंकर को मैंने पूजा है। इस तरह से रावण और अंगद के बीच करीब एक घंटे तक संवाद चलता रहा। फिर अंगद ने रावण के दरबार में पैर जमाते हुए कहा कि जो भी मेरे इस पैर को उठा देगा, श्री राम सीता जी को हार जाएंगें। रावण के कई योद्धाओं ने प्रयास किया, लेकिन पैर को हिला तक न सके। इसके बाद खुद रावण आए और अंगद का पांव उठाने लगे। अंगद ने पांव पीछे खींककर कहा कि मेरे नहीं जाकर श्री राम के पैर पकड़ो। बात न बनती देख अंगद की ओर से युद्ध का ऐलान कर दिया गया, जवाब में रावण ने भी यह ऐलान कर दिया। रावण ने दरबार में पुत्र मेघनाथ (विश्वास सैनी) को बुलाया और राम-लक्ष्मण के साथ युद्ध करने को भेजा। युद्ध में मेघनाथ ब्रह्मास्त्र का प्रयोग लक्ष्मण पर करते हैं और वे मूर्छित हो जाते हैं। हनुमान जी लक्ष्मण को उठाकर श्री राम के पास ले जाते हैं। उन्हें सारा हाल बताते हैं। छोटे भाई को इस तरह से जमीन पर पड़ा देख राम विलाप करते हैं।
विभीषण कहते हैं कि पर्वत पर सुषेन वैद्य राज रहते हैं। वे ही इसके बारे में कुछ उपाय कर सकते हैं। हनुमान जी वैद्य राज (नरेश सैनी) को उठाकर ले आते हैं। उनको राम जी सारा वृतांत सुनाते हैं तो वैद्य राज यह कहकर उपचार करने से मना कर देते हैं कि मैं तो लंका का वैद्य हूं और आप लंका के दुश्मन। इसलिए मैं आपके भाई का उपचार नहीं करता। उनके इस कथन पर श्री राम कहते हैं कि धर्म की राह पर चलते हुए अगर भाई की कुर्बानी देनी पड़ी तो वे दे देंगें। इसी बात से प्रभावित होकर वैद्य राज लक्ष्मण का उपचार करने को राजी हो जाते हैं। वैद्य राज बताते हैं कि आज रात ही रात में द्रोणगिरी पर्वत से संजीवनी बूटी लाई जा सकती है तो लक्ष्मण के प्राण बच सकते हैं। श्री राम हनुमान को ही इस काम के बारे में अनुरोध करते हुए कहते हैं-
ओ बलबीरा बेगी बूटी तो जइयो लाय,
समय-समय पर राम की धरी तुम्ही ने धीर,
आज अचानक आ पड़ी, फिर यह भारी भीड़,
ओ दुख-सुख के साथी दो ये पीड़ मिटाए।
इसके बाद हनुमान जी श्री राम का आशीर्वाद लेकर बूटी लेने चले जाते हैंं। द्रोणगिरी पर्वत पर तो वे पहुंच गए पर उनकी समझ में यह नहीं आया कि वहां से कौन सी बूटी ली जाए यानी कौन सी संजीवनी बूटी है। बिना कोई देरी किए हनुमान जी ने द्रोणगिरी पर्वत का एक हिस्सा अपने हाथ पर उठाया और उड़ चले रामा दल की ओर। इसी बीच जब हनुमान जी पर्वत लेकर अयोध्या के ऊपर से निकल रहे थे तो उन पर भरत की नजर पड़ी। भरत ने सोचा कि कोई संकट अयोध्या पर आने वाला है। इसी के चलते उन्होंने एक तीर हनुमान जी को मारा और वे पर्वत समेत नीचे गिर गए। नीचे गिरते ही जब हनुमान जी ने जय श्री राम का नारा लगाया तो भरत उनके पास गए। उनसे पूछा कि वे कौन हैं। इस पर हनुमान जी ने सारा वृतांत सुनाया। दुखी भरत ने कहा कि वे अपने तीर पर बिठाकर उन्हें चंद समय में ही वहां पर पहुंचा सकते हैं। हनुमान जी रामा दल में संजीवनी बूटी लेकर पहुंच गए। इसके बाद द्रोणगिरी पर्वत से वैद्य राज ने संजीवनी बूटी लक्ष्मण को सुंघाई और उनकी मूर्छा टूट गई। उठते ही लक्ष्मण ने अपने दुश्मन को ललकारा। राम ने उन्हें गले लगाकर विलाप किया।
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