समान नागरिक संहिता को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आह्वान के बाद देशभर में इस मुद्दे पर चर्चा शुरू हुई है। राजनीतिक दलों में भी कुछ इसके पक्ष में हैं और कुछ इसके पक्ष में नहीं हैं। समान नागरिक संहिता लागू करने वाला गोवा देश का पहला राज्य है, जहां आजादी के बाद से ही समान नागरिक संहिता लागू है। लॉ कमीशन ने भी इसी विषय पर आम जनता से राय मांगी है। इंटरनेट सुविधा के चलते बड़ी संख्या में लोगों ने इसके पक्ष में अपने विचार व्यक्त करके इसका समर्थन किया है। संविधान निर्माताओं की भी मंशा देश में समान कानून लागू करने की थी। मगर राजनीतिक कारणों के चलते इसे अब तक टाला जाता रहा है।
संसद के मानसून सत्र में समान नागरिक संहिता विधेयक संसद में पेश होगा या नहीं, ये फिलहाल पक्का नहीं है। राजनीति के अलावा धार्मिक संगठन भी इस पर अपने विचार व्यक्त कर रहे हैं। कांग्रेस ने तो बिना देर लगाए ही इसका विरोध कर दिया। नीतीश कुमार ने अपनी राय सुरक्षित रखी तो शरद पवार ने समर्थन या विरोध दोनों से दूर रहने की बात कर डाली। उद्धव ठाकरे ने समर्थन करने की जो घोषणा की वह उनकी हिंदूवादी छवि बनाए रखने के लिए जरूरी हो गई थी किंतु आम आदमी पार्टी ने जब अपनी सहमति दिखाई तब लोगों को आश्चर्य हुआ क्योंकि इन दिनों उसके और भाजपा के बीच सांप और नेवले जैसे रिश्ते बने हुए हुए हैं। अकाली दल के अलावा बौद्ध संगठन भी अपनी अलग पहचान के आधार पर समान नागरिक संहिता का विरोध कर रहे हैं। मुस्लिम समुदाय से तो विरोध की अपेक्षा थी ही। लेकिन समर्थन कर रहे संगठनों और राजनीतिक दलों द्वारा भी ये कहा जा रहा है कि वे समान नागरिक संहिता को तभी समर्थन देंगे जब उस पर सभी पक्षों की आम राय बने।
दूसरी ओर ओवैसी ने संयुक्त हिंदू परिवार को मिलने वाली टैक्स छूट का मुद्दा छेड़ दिया तो अनेक आदिवासी समुदाय ये कह रहे हैं कि उनकी परंपराएं ही उनके धर्म हैं और वे उनमें छेड़छाड़ स्वीकार नहीं करेंगे। उत्तर पूर्व राज्यों के कबीलाई समुदायों को लेकर भी ऐसे ही सवाल उठाए जा रहे हैं। वरिष्ट अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने विपक्षी दलों सहित बाकी सभी पर तंज कसा है कि जब संभावित विधेयक का प्रारूप स्पष्ट नहीं है तो बेकार का हल्ला क्यों मचाया जा रहा है? लेकिन एक बात काफी तेजी से उठ रही है कि इसकी जरूरत क्या है क्योंकि किसी ने इसकी मांग तो की नहीं और इसे पेश करने के लिए यही समय क्यों चुना गया?
ये भी आरोप है कि भाजपा इसके जरिए हिंदुत्व के मुद्दे को नए सिरे से गरमाना चाहती है ताकि लोकसभा चुनाव में ध्रुवीकरण करा सके। समान नागरिक संहिता के विरोध में ये भी प्रचारित हो रहा है कि इसका निशाना मुस्लिम समुदाय ही है। लेकिन इस बारे में एक बात तो माननी पड़ेगी कि सर्वोच्च न्यायालय अनेक मामलों में समान नागरिक संहिता लागू किए जाने पर जोर दे चुका है और उसी के मद्देनजर विधि आयोग ने लोगों से सुझाव आमंत्रित करने की प्रक्रिया शुरू की है।
अब जो लोग इसकी आवश्यकता और समय पर सवाल उठा रहे हैं उनसे ये पूछा जाना चाहिए कि आजादी के बाद जब 1951 में हिंदू कोड बिल पेश किया गया तब उसकी जरूरत किसने जताई थी और बिना आम सहमति के उसे संसद में पेश करने की कोशिश पंडित नेहरू की सहमति से डॉ. अंबेडकर ने क्यों की? जब वह विधेयक भारी विरोध के कारण नामंजूर हो गया तो क्षुब्ध होकर बाबा साहेब ने त्यागपत्र दे दिया। लेकिन 1952 के आम चुनाव के बाद जब कांग्रेस को भारी बहुमत संसद और राज्यों में मिल गया तब पंडित नेहरू ने दोबारा उस बिल को टुकड़ों में बांटकर अनेक कानून स्वीकृत करवाए। उस समय भी हिंदू धर्माचार्यों ने उनका विरोध किया था।
जवाब में ये कहा गया कि आजादी के आंदोलन के दौरान ही महिलाओं की आर्थिक और सामाजिक स्थिति सुधारने के लिए कदम उठाए जाने की मांग उठने लगी थी। उस आधार पर नेहरू जी यदि समान नागरिक संहिता का प्रस्ताव लाते तब वह धर्म निरपेक्षता के दावे के अनुरूप होता। यद्यपि उस समय तक संविधान में धर्म निरपेक्ष शब्द था ही नहीं किंतु देश के सभी नागरिकों के लिए एक समान कानून की बात उल्लिखित थी। लेकिन ऐसा लगता है विभाजन के बाद भारत में बस गए मुस्लिमों को खुश रखने के लिए हिंदुओं के विवाह विच्छेद, बहुपत्नी प्रथा, पुनर्विवाह, उत्तराधिकार और गोद लेने जैसे प्रावधान तो सुधार के उद्देश्य से बदल दिए गए किंतु मुस्लिम पर्सनल लॉ को शरीयत से निर्देशित मानकर उससे छेड़छाड़ करने की हिम्मत नहीं हुई। जबकि उस दौर में नेहरू जी राजनीतिक तौर पर इतने मजबूत थे कि वे समान नागरिक संहिता का प्रस्ताव लाते तब वह सही मायनों में सामाजिक सुधार का प्रयास कहलाता। लेकिन मुस्लिम महिलाओं से जुड़ी विसंगतियां दूर करने का साहस वे और संसद में बैठे दिग्गज क्यों नहीं दिखा सके ये सवाल उठना स्वाभाविक है। उसके बाद से ही मुस्लिम तुष्टीकरण का आरोप कांग्रेस पर लगने लगा जिससे वह आज भी नहीं उबर पाई है।
यद्यपि मुलायम सिंह और लालू प्रसाद यादव के बाद ममता बैनर्जी ने तो मुसलमानों का वोट हासिल करने के लिए तुष्टीकरण के नए कीर्तिमान स्थापित कर डाले। यही वजह है कि समान नागरिक संहिता के विरोध में सुनियोजित ढंग से मुहिम शुरू कर दी गई। इस बारे में श्री सिब्बल की बात सही है कि पहले संबंधित विधेयक का प्रारूप तो सामने आ जाए और उसे देखकर विरोध अथवा समर्थन का फैसला करें। इसके साथ ही ये भी अपेक्षित है कि विरोध करने वाले विधि आयोग को अपने सुझाव भेजें जिससे कि उसे अपनी रिपोर्ट बनाने में सुविधा हो। हालांकि सरकार चाहे तो संसद में सीधे विधेयक भी ला सकती है किंतु आम राय बनाने की दिशा में विधि आयोग की पहल सराहनीय है।
हिंदू कोड बिल पारित करवाते समय इस तरह पूछने का प्रयास हुआ हो, इस बारे में जानकारी शायद ही किसी को होगी और इसीलिए हिंदुओं में सदैव इस बात को लेकर असंतोष रहता है कि उनके रीति-रिवाजों को बदलने का सिलसिला तो चलता रहा किंतु शाहबानो मामले में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले तक को संसद में पलट दिया गया क्योंकि मुस्लिम समाज उस फैसले से नाराज था। तीन तलाक पर रोक लगने के बाद सुधार प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिए समान नागरिक संहिता समय की मांग हैं। यदि सभी धर्म इस बात पर अड़ जाएं कि उनमें प्रचलित किसी भी प्रथा को बदलने नहीं देंगे चाहे वह आज के दौर में अनुपयोगी, आपत्तिजनक और अव्यवहारिक ही क्यों न हो, तब सवाल ये है कि देश कैसे चलेगा?
विपक्ष का यह तर्क कि मुद्दे का राजनीतिकरण किया जा रहा है, व्यर्थ है। क्योंकि रूढ़िवादी मौलानाओं की महत्ता कायम रखने की खातिर समान नागरिक संहिता का विरोध निकृष्टम राजनीतिक पैंतरा माना जाएगा, जिसकी अपेक्षा किसी राजनीतिक दल से नहीं है। आखिरकार, शाह बानो मामले में दिये सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को उलट देने जैसे काम कांग्रेस को उसकी राजनीतिक वैधता से महरूम करते हैं। विपक्ष, खास तौर से वामपंथी, जब कांग्रेस के मुस्लिम वोटों को विभाजित करने की पुरजोर कोशिश करते हुए यूसीसी का विरोध करते हैं, तो वे हमेशा के लिए अपना नैतिक विवेक खो देंगे। इस मुद्दे पर राजनीति की बजाय राष्ट्रहित को प्राथमिकता देनी होगी।
-चिकित्सक एवं लेखक
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