बाबा प्रकाशपुरी जी महाराज के शिष्य महंत रवि पुरी जी महाराज के आशीर्वाद के साथ शुरू हुई श्री दुर्गा रामलीला
-नारद मोह की लीला से शुरू हुई रामलीला
गुरुग्राम। जैकबपुरा स्थित श्रीदुर्गा रामलीला की भव्य शुरुआत शुक्रवार से कर दी गई। बाबा प्रकाश पुरी जी महाराज के परम शिष्य रवि पुरी जी महाराज, गोपाल दास बत्रा, पवन सचदेव, यश अरोड़ा ने विधि-विधान से पूजा करके रामलीला का श्रीगणेश किया। इसके बाद कलाकारों ने लीला का मंचन किया। इस अवसर पर कमेटी के चेयरमैन बनवारी लाल सैनी, प्रधान कपिल सलूजा, महासचिव अशोक प्रजापति और कोषाध्यक्ष प्रदीप गुप्ता समेत अन्य पदाधिकारी और सदस्य मौजूद रहे।
मीडिया प्रभारी राजकुमार सैनी ने बताया कि जो दर्शक ग्राउंड में नहीं आ पाए, उनको फेसबुक के माध्यम से लाइव और इंस्टाग्राम सोशल मीडिया पर सीधा प्रसारण किया जा रहा है। रामलीला की शुरुआत नारद जी के तप से शुरू हुई। नारायण-नारायण के जाप के साथ नारद जी भजनों के माध्यम से हिमालय पर्वत पर से जा रहे थे। हिमालय पर्वत में एक बड़ी पवित्र गुफा थी। वह परम पवित्र गुफा नारद जी को अत्यन्त सुहावनी लगी। वहां पर के पर्वत, नदी और वन को देख कर वे वहीं बैठकर तपस्या में लीन हो गये। नारद मुनि की इस तपस्या से देवराज इन्द्र भयभीत हो उठे कि कहीं देवर्षि नारद अपने तप के बल से इन्द्रपुरी को अपने अधिकार में न ले लें।
आगे की लीला में दिखाया गया कि इन्द्र ने नारद की तपस्या भंग करने के लिये कामदेव को उनके पास भेज दिया। वहां पहुंच कर कामदेव ने अपनी माया से वसन्त ऋतु को उत्पन्न कर दिया। रम्भा आदि नवयुवती अप्सराएं नृत्य व गान करने लगीं। कामदेव की किसी भी कला का नारद मुनि पर कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा। तब कामदेव को भय सताने लगा कि कहीं देवर्षि मुझे श्राप न दे दें। हारकर वे देवर्षि के चरणों में गिर कर क्षमा मांगने लगे। नारद मुनि को थोड़ा भी क्रोध नहीं आया और उन्होंने कामदेव को क्षमा कर दिया। कामदेव वापस अपने लोक में चले गये। कामदेव के चले जाने पर नारद मुनि के मन में अहंकार हो गया कि हमने कामदेव को जीत लिया। वहां से वे शिव जी के पास चले गये और उन्हें अपने द्वारा कामदेव को जीतने का विवरण कह सुनाया। उन्होंने नारद से कहा कि तुमने जो कथा मुझे बताई है उसे श्री हरि को मत बताना।
नारद जी को शिव जी की यह बात अच्छी नहीं लगी। इसके बाद नारद जी क्षीरसागर में पहुँच गये और शिव जी के मना करने के बाद विष्णु जी को भी सारी कथा उन्हें सुना दी। नारद जी जब श्री विष्णु से विदा होकर चले तो उनका अभिमान और भी बढ़ गया। श्री हरि ने अपनी माया से नारद जी के रास्ते में सौ योजन का एक अत्यन्त सुन्दर नगर रच दिया। उस नगर में शीलनिधि अत्यन्त वैभवशाली राजा था। उस राजा की विश्वमोहिनी नाम की एेसी रूपवती कन्या थी जिसके रूप को देख कर साक्षात लक्ष्मी भी मोहित हो जाए। विश्वमोहिनी स्वयंवर करना चाहती थी, इसलिये अनगिनत राजा उस नगर में आये हुए थे। नारद जी उस नगर के राजा के यहां पहुंचे तो राजा ने उनका पूजन कर के उन्हें आसन पर बैठाया। फिर उनसे अपनी कन्या की हस्तरेखा देख कर उसके गुण-दोष बताने के लिया कहा। उस कन्या के रूप को देख कर नारद मुनि वैराग्य भूल गये और उसे देखते ही रह गये। उस कन्या की हस्तरेखा बता रही थी कि उसके साथ जो ब्याह करेगा वह अमर हो जायेगा, उसे संसार में कोई भी जीत नहीं सकेगा और संसार के समस्त चर-अचर जीव उसकी सेवा करेंगे। इन लक्षणों को नारद मुनि ने अपने तक ही सीमित रखा और राजा को उन्होंने अपनी ओर से बना कर कुछ अन्य अच्छे लक्षणों को कह दिया। अब नारद जी ने सोचा कि कुछ एेसा उपाय करना चाहिये कि यह कन्या मुझे ही वरे। इस मामले में जप-तप से से तो काम चलना नहीं है, जो कुछ होना है वह सुन्दर रूप से ही होना है। एेसा विचार कर के नारद जी ने श्री हरि को स्मरण किया और भगवान विष्णु उनके समक्ष प्रकट हो गये। नारद जी ने उन्हें सारा विवरण बता कर कहा, हे नाथ आप मुझे अपना सुन्दर रूप दे दीजिये। जिस प्रकार से भी मेरा हित हो आप शीघ्र वही कीजिये।
भगवान हरि ने कहा, हे नारद! हम वही करेंगे जिससे तुम्हारा परम हित होगा। तुम्हारा हित करने के लिये हम तुम्हें हरि-हरि शब्द का एक अर्थ बन्दर भी होता है का रूप देते हैं। यह कह कर प्रभु अन्तर्धान हो गये साथ ही उन्होंने नारद जी बन्दर जैसा मुंह और भयंकर शरीर दे दिया। माया के वशीभूत हुए नारद जी को इस बात का ज्ञान नहीं हुआ। वहां पर छिपे हुए शिव जी के दो गणों ने भी इस घटना को देख लिया। ऋषिराज नारद तत्काल विश्वमोहिनी के स्वयंवर में पहुंच गये और साथ ही शिव जी के वे दोनों गण भी ब्राह्मण का वेश बना कर वहां पहुंच गये। वे दोनों गण नारद जी को सुना कर कहने लगे कि भगवान ने इन्हें इतना सुन्दर रूप दिया है कि राजकुमारी सिर्फ इन पर ही रीझेगी। उनकी बातों से नारद जी अत्यन्त प्रसन्न हुए। स्वयं भगवान विष्णु भी उस स्वयंवर में एक राजा का रूप धारण कर आ गये। विश्वमोहिनी ने कुरूप नारद की तरफ देखा भी नहीं और राजारूपी विष्णु के गले में वरमाला डाल दी। मोह के कारण नारद जी की बुद्धि नष्ट हो गई थी। जब वे गुस्से से आग-बबूला थे तो उसी समय शिवजी के गणों ने वहां व्यंग्य करते हुए नारद जी से कहा कि जरा दर्पण में अपना मुंह तो देखिये। नारद जी ने जल में अपना मुंह देता तो खुद की कुरुपता देखकर और क्रोधित हो गए। उन्होंने शिवजी के उन गणों को राक्षस हो जाने का श्राप दे दिया। श्राप देने के बाद जब नारद जी ने फिर से जल में देखा तो पता चला कि उनका असली रूप वापस आ चुका है।
बेशक उन्हें अपना असली रूप मिल गया हो, लेकिन भगवान विष्णु पर उन्हें क्रोध आ रहा था। रास्ते में रास्ते में ही उनकी मुलाकात विष्णु जी से हुई, जिनके साथ लक्ष्मी जी और विश्वमोहिनी भी थीं। नारद जी ने उनसे कहा कि में तुम्हें श्राप देता हूं कि तुम मनुष्य के रूप में जन्म लोगो। तुमने हमें स्त्री वियोग दिया, इसलिए तुम्हें भी स्त्री वियोग सहकर दुखी होना पड़ेगा। हमें बंदर का रूप दिया है, इसलिए बंदर ही तुम्हारी सहायता करेंगें। यानी उनका सहारा लेना पड़ेगा।
अगले दृश्य में रावण के जन्म के साथ साथ तीनों भाई रावण, विभीषण एव कुंभकर्ण द्वारा भगवान शंकर की तपस्या पूरी की और अंत में भगवान शंकर ने उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर उन्हें वरदान दिए। जिसमें रावण ने भगवान शिव से अमरता (सदा अमर रहने का वर) मांगा और उसे अमरता का दिव्य अमृत दिया विभीषण को श्री हरि भक्ति और कुंभकर्ण ने निन्द्राशन का वरदान प्राप्त हुआ।और अगले दृश्य में रावण पुत्र मेघनाथ ने सम्पूर्ण देव लोक को काल सहित अपना बंदी बनाया।
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