जब हम ज्ञान की बात करते है, या सनातन संस्कृति की बात करते है तो यहां ज्ञान की कोई कमी नहीं है, हमारे ऋषि मुनियों तथा महापुरुषों ने पूरे विश्व को इतना ज्ञान दिया है कि वो आज विज्ञान के रूप में भी विकसित है। हमारे यहां पारिवारिक संस्कृति या संस्कार रहे है। हमारी सनातन संस्कृति में, यहां तक कि हमारी भारतीय संस्कृति में भगवान के रूप में भी जो विराजमान है वो भी पारिवारिक संस्कारों से जुड़े रहे है। जिन महान ऋषियों ने बड़े बड़े शोध किए है, या बड़े बड़े राजाओं को सलाह दी है या प्रशिक्षण दिया है, वो अपनी पत्नी तथा परिवार के साथ रहे है। ऐसा नहीं है कि संन्यास में रहकर ही राष्ट्र की सेवा की जा सकती है। संस्कार परिवार में ही विकसित होते है, ये कटु सत्य है।यहां मैं राष्ट्र सेवा की बात इसलिए कर रहा हूँ क्योंकि हमारी हर गतिविधि या हरेक के जीवन में राष्ट्र ही प्रथम होता है, फिर चाहे आप परिवार में रहो या फिर संन्यास में रहो। आप किसी भी पूजनीय महर्षि की बात करे, चाहे ऋषि वशिष्ठ की बात करे, या महर्षि कणाद हो, या महर्षि कपिल मुनि हो, सभी ने परिवार में रहते हुए नैतिक मूल्यों को स्थापित करते हुए जीवन जीया हैं। ज्ञान होना उतना बड़ा नहीं है क्योंकि वर्तमान में आप ज्ञान तो कही से भी ले सकते है परंतु उस ज्ञान को व्यवहार में उतारते वक्त नैतिक मूल्यों का पालन किया जा रहा है या नहीं किया जा रहा हैं वह जरूरी है।
उस ज्ञान का कोई लाभ नहीं है जो राष्ट्र के हित में ना हो, जो हमारी भारतीय संस्कृति के अनुरूप ना हो, जो मानव को मानव ना बनाते हो। हम सदैव से नैतिक मूल्यों के लिए ही जाने जाते रहे है, जब हम भारत को विश्वगुरु होने की बात करते है तो केवल और केवल नैतिक मूल्यों की स्थापना के लिए ही माने जाते है, वसुधैव कुटुंकम भी इसी ओर इशारा करता है। जो गुरु शब्द है वो उन्हीं के लिए प्रयोग किया जाता जो ज्ञान के साथ साथ मानव मूल्यों की सुरक्षा करते हो, किसी धनाढ्य या अधिक पढ़े लिखे के लिए नहीं या किसी प्रकार की आसुरी संपदा वालों को गुरु की श्रेणी में नहीं रखा जाता है। इसलिए मैं युवा पीढ़ी को यहां सचेत करना चाहता हूं कि अगर सदियों चलना है या नाम अमर करना है तो नैतिकता के साथ खड़ा होना सीखे, क्योंकि इस देश में कितने ही राजा महाराजा हुए है, कितनी ही हवेलियों के खंडहर खड़े है, कितने ऐसे सत्ता करने वाले हुए हैं जिनके खानदान का पता तक भी नहीं है। हम उन्ही महानुभावों को को अगर सबकुछ मान लेंगे तो ना तो हम अपना भला कर पाएंगे और ना ही राष्ट्र का हित कर पाएंगे। भारतीय संस्कृति में नैतिक मूल्यों को जीवन का आधार माना जाता है, इसी लिए ही कोई भी सिद्धांत व्यवहार में लाने के लिए हमे उसे चार कसौटी पर खरा पाना होता है। इन चारों कसौटियों की चर्चा करना यहां बेहद आवश्यक है। इन चारों को परखना जरूरी है, जैसे;
1. श्रुति का अध्ययन करना।
2. स्मृतियों का अध्ययन करना।
3. सदाचार की स्थापना।
4. यतो अभ्युदय नि:श्रेयश सिद्धि का पाठ।
ये चार कसौटी ही हमारे जीवन में नैतिक मूल्यों तथा मानव मूल्यों को स्थापित करते है। इन्हीं को परखना होता है। यहां मैं किसी पाखंड का सहारा लेने की बात नहीं कर रहा हूँ, मैं यहां किसी दिखावे या किसी चमत्कार की बात नहीं कर रहा हूं, मैं यहां किसी भी प्रकार की मानसिक संकीर्णता की भी बात नहीं कर रहा हूँ, क्योंकि सनातन संस्कृति या भारतीय संस्कृति विशाल है अदभुद है, नैतिक मूल्यों से अलंकृत कनक सी चमकने वाली संस्कृति हैं। इसी परिस्थिति में हमारे सामने वो चार द्वार खुले हुए है, उन्ही में से एक एक को परखकर आगे बढ़ने की जरूरत है।
पहला द्वारा हमारे शास्त्र है जो विभिन्न रूपों में है, जैसे वेद, उपनिषद, श्रीमद्भगवद् गीता, महाभारत, रामायण या कोई भी अन्य धार्मिक ग्रन्थ जो हर किसी को जीवन के राह दिखाते है, उन्ही का पालन करने के लिए एक कसौटी है परंतु अगर इनमें कोई घाल मेल है तो तर्कशीलता द्वारा उन्हें परखा जाना चाहिए। अगर किसी बिंदु पर आकर हमे लगता है कि ये सत्य का रास्ता नहीं दिखा रहे है,तो फिर हमे तीसरी कसौटी पर जाकर परखने की जरूरत है। इसमें हम जीवन में सदाचार की स्थापना की बात करते है, अगर हमारी कोई भी श्रुति स्मृति हमारे जीवन में सदाचार लेकर नहीं आते है तो वो मानने योग्य नहीं है, अगर इनसे जीवन में दिखावा चमत्कार या एक दूसरे को नीचा दिखाने की बात है तो वो मानने योग्य नहीं है, क्योंकि धर्मों धार्यते प्रजा: अर्थात धर्म वो ही है जो प्रजा को धारण करें। यहां एक बात मै बहुत स्पष्ट रूप से कहना चाहता हूँ कि धर्म, मानव के लिए है, मानव धर्म के लिए नहीं है। धर्म वही है जो इंसानियत का उत्थान करें। इसी लिए यहां सदाचार स्थापित करने की बात हो रही है। अगर इन सभी से जीवन में नैतिक मूल्यों का संरक्षण नहीं हो रहा है तो फिर हमे चौथी सीढ़ी पर जाकर देखना चाहिए, कि ये कथन हमारा सब ओर से विकास कर रहा है या नहीं, और इसके साथ ही चारों ओर विकास तो हो, परंतु आत्मा का पतन नहीं होना चाहिए अर्थात बहुत बार हम धन दौलत से विकसित हो जाते है लेकिन हमारे साधन ऐसे होते है कि हम आत्मिक रूप से गिर जाते है अर्थात आत्मिक रूप से हमारा पतन हो जाता है।
इसलिए हम कुछ भी करें, किसी भी शास्त्र का अध्ययन करें, किसी पूजा पद्धति को अपनाए, किसी को गुरु बनाए, किसी के प्रवचन सुने, किसी बाबा, मौलवी के यहां जाएं, लेकिन इतना सुनिश्चित जरूर करें कि हमारे जीवन में सदाचार की स्थापना होनी चाहिए। हमारे जीवन में हर प्रकार से विकास तो हो, लेकिन आत्मा का पतन ना हो। हम सबने बहुत बात देखा है कि हम बहुत धार्मिक होने का दिखावा करते है परंतु हमारा जीवन दुराचार से भरा है, हमारे भीतर विचलन है, हम आत्मिक रूप से गिर रहे है तो हमे यहां पर अपनी सभी गतिविधियों को रोकना पड़ेगा, चाहे आप किसी भी जाति धर्म से संबंध रखते है। हम अक्सर बहुत से ज्ञानी लोगों को देखते है जो अपने अपने धर्म के बड़े बड़े शास्त्रों का ज्ञान रखते है, बहुत भाषाओं का ज्ञान रखते है, बहुत अंग्रेजी बोलते है, अलग अलग भाषाओं में पारंगत होते है, अपने अपने धर्म के धार्मिक ग्रंथों में महारथ हासिल किए होते है लेकिन इसके विपरित वो कामवासना से भरे हुए है, असत्य बोलते है, सदाचारी नहीं है, बहन बेटियों का सम्मान नहीं करते है, महिलाओं को गलत बोलते है, अपने जीवन में ईमानदार नहीं है, तो ऐसे ज्ञान का कोई लाभ नहीं है जिनसे राष्ट्र को सशक्त नहीं किया जा सकता हो, जिनके कमजोर चरित्र से आम जनमानस को दुराचार के रास्ते पर ले जाया जा रहा हो, तो ऐसे महानुभावों से दूरी बनाने की जरूरत है, क्योंकि जो सदाचारी नहीं है वो आज आपको अच्छे लग सकते है क्योंकि वो आपके मन मुताबिक किसी को गलत बोल रहे है लेकिन वो समय दूर नहीं होगा, जब वो आपका नंबर भी लगाएंगे, वो आपको भी लपेटेंगे। जो दुराचारी है वो दुराचारी ही रहेंगे, चाहे कितना भी ज्ञान प्राप्त कर लें। ज्ञान, और डिग्रियां तो बहुत लोगों के पास है, बहुत लोग ज्ञान बांट रहे लेकिन नैतिक मूल्यों का पतन इसी लिए हो रहा है कि हमने कभी इन्हें परखने की कौशिश ही नहीं की। आओ राष्ट्र को विकसित करने हेतु अपने जीवन को नैतिक मूल्यों से सशक्त करें।
जय हिंद, वंदे मातरम
लेखक
नरेंद्र यादव
नेशनल वाटर अवॉर्डी
यूथ एंपावरमेंट मेंटर